राजनीति के आईने में इतिहास: लोकतंत्र की कसौटी पर ‘संविधान’ और ‘आपातकाल’

संविधान बनाम आपातकाल, संविधान को बचाने बनाम संविधान बदलने की छिपी मंशा, नौकरी व शिक्षा में जाति आधारित आरक्षण की रक्षा बनाम जातिगत आरक्षण के खात्मे की नीयत,  लोकतंत्र जिंदा रखने बनाम लोकतंत्र के मुखौटे में तानाशाही लागू करने की मंशा...। ये कुछ ऐसे सुलगते मुद्दे हैं, जिन पर अब देश में परसेप्शन की लड़ाई लड़ी जा रही है। एक मायने में यह अच्छा इसलिए है, क्योंकि लोकतंत्र के संदर्भ में एक सैद्धांतिक वाद-विवाद सियासत के केन्द्र में है।

हालांकि, इसका इस्तेमाल सत्ता को कायम रखने अथवा उसे छीनने के उद्देश्य से किया जा रहा है। तर्कों, कुतर्कों, आशंकाओं और जिद के धुंध में देश के आम आदमी के लिए समझना मुश्किल है कि सच क्या है? इसमें कौन दूध का धुला है, किसके हाथों में संविधान एक पवित्र ग्रंथ की सुरक्षित है और किसके हाथों में संविधान की हत्या का छुपा खंजर है? लेकिन हैरानी की बात यह है कि संविधान की पवित्रता की कायमी की दुहाई के साथ किसी स्तर पर कोई पश्चात्ताप का भाव नहीं है।

 
इस देश में 2024 के पहले हुए तमाम चुनावों में आरक्षण व अन्य जमीनी मुद्दे तो चर्चा में रहे हैं, लेकिन यह पहला चुनाव था, जिसके केन्द्र में संविधान और उसकी रक्षा का मुददा आ गया या लाया गया था। मसलन देश में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, संविधान को दबे पांव बदलने, संवैधानिक संस्थाओं को गुलाम बनाने या फिर पिछले दरवाजे से निरंकुश शासन की आहट की आशंकाएं भी  हवा में थीं, लेकिन बात सीधे संविधान पर आ टिकेगी, ऐसा चुनाव के शुरू के दो चरणों में भी नहीं लगा था।

शुरू में कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों को भी इस मुद्दे की राजनीतिक ताकत का अहसास नहीं था और वे मोटे तौर महंगाई, बेरोजगारी, जाति जणना, मोदी की निरंकुशता जैसे मुद्दों पर ही चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन चुनाव की पूर्व बेला में पीएम मोदी के एक अवास्तविक दावे ‘अबकी बार चार सौ पार’ को टेका लगाने जब कुछ भाजपा नेताओं ने यह कहना शुरू किया कि ‘चार सौ पार’ संविधान में बदलाव के लिए चाहिए तो किसी निर्णायक मुददे की तलाश में भटक रहे विपक्ष को मानो जादू का चिराग मिल गया।

तत्काल संविधान की प्रतियां हाथ में ले लेकर उसे बचाने की सार्वजनिक कसमे खाई जाने लगी। कहा गया कि मोदी और भाजपा की असल मंशा उस संविधान को बदलने की है, जिसने ओबीसी, दलित और आदिवासियों को बराबरी के अधिकार और आरक्षण दिया है। अगर भाजपा के पास बहुत ज्यादा ताकत आ गई तो संविधान में संशोधन कर वो यह सब खत्म कर देगी।

हालांकि, स्पष्ट तौर किसी ने भी नहीं कहा था कि संविधान को बदलने से ठीक- ठीक क्या आशय है? क्या जातिगत आरक्षण को खत्म करना, संविधान की उद्देशिका में 26 साल बाद संविधान संशोधन के जरिए जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘पंथ निरपेक्ष’ राष्ट्र शब्दों को हटाना अथवा भारत को आधिकारिक रूप से हिंदू राष्ट्र घोषित करना।

 

संविधान में बदलाव की आहट 

दरअसल, संविधान में बदलाव की जो सुरसुरी खुद भाजपाइयों ने शुरू की थी, उसका भाजपा ने कभी भी सुस्पष्ट तौर पर खंडन नहीं किया। वह अपनी ‘यह भी सही और वह भी सही’ की पुरानी रणनीति पर कायम रही। संविधान को सिर माथे रखकर उसने सफाई दी भी तो बहुत देर से। नतीजा उसे 2019 की तुलना में 63 सीटों के भारी नुकसान के रूप में हुआ। कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों ने जो नरेटिव बनाया कि भाजपा कुछ भी कहे, संविधान को लेकर उसके इरादे नेक नहीं है, वह गरीबों को मिले अधिकार छीनना चाहती है। धारणा का यह ब्रह्मास्त्र कुछ राज्यों में काम कर गया।  

ऐसे में केन्द्र में तीसरी बार एनडीए सरकार बनाने के बाद मोदी और भाजपा ने विपक्ष के ‘संविधान कार्ड’ की काट इमरजेंसी में ढूंढने की कोशिश की है। असल में यह राजनीतिक पलटवार है,  जिसमें संदेश निहित है कि जो कांग्रेस और राहुल गांधी संविधान की प्रति रामचरित मानस के गुटके की तरह हाथ में लिए उसकी पवित्रता कायम रखने की कसमे खा रहे हैं, खुद उनकी दादी और कांग्रेस पार्टी संविधान को बदलने का ‘पाप’ 1976 में 42 में संविधान संशोधन के जरिए कर चुकी है। ऐसे मे भाजपा को कटघरे में खड़ा करना ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली अदा है।  यह ऐतिहासिक तथ्य है कि यह संशोधन उस वक्त किया गया, जब देश में आपातकाल लगा था।

लोगों के मौलिक अधिकार निलंबित थे। लाखों इंदिरा विरोधी व विपक्षी जेल में डाल दिए गए थे। लोकसभा में इस बिल का विरोध केवल उन पांच सांसदों ने किया था, जो कांग्रेस में ‘असंतुष्ट’ माने जाते थे। जबकि 21 विपक्षी सांसद मीसा एक्ट में जेल में बंद थे। राज्य सभा में किसी ने भी इस बिल का विरोध नहीं किया।

इस संविधान संशोधन के जरिए संविधान की उद्देशिका में तीन बातें जोड़ी गईं। यह है भारत का ‘समाजवादी, पंथ निरपेक्ष’ (सेक्युलर) होना तथा देश राष्ट्रीय एकता और अखंडता कायम रखना।

तीसरे मुद्दे पर कहीं कोई विवाद नहीं था। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा संविधान की उद्देशिका में ‘समाजवादी और पंथ निरपेक्ष’ जोड़े जाने पर सवाल उठे। क्योंकि संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर लिखित और तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की असंदिग्ध सेक्युलर प्रतिबद्धता के बाद भी उद्देशिका में  इन दो शब्दों को अलग से जोड़ने की जरूरत नहीं समझी गई।

माना गया कि जब संविधान की उद्देशिका में भारत के सभी नागरिकों को ‘सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय’ की गारंटी दी गई है तो इसमें समाजवादी व्यवस्था का भाव स्वत: निहित है।  इसी तरह जब हर नागरिक को विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता दी गई है तो इसे अलग से ‘पंथ निरपेक्ष’ के रूप में मुहर लगाने की कोई जरूरत नहीं है। फिर भी ये दो शब्द जोड़े गए तो इसके पीछे कौन सा तात्विक आग्रह, भविष्य का भय या राजनीतिक दांव था, यह बड़ा सवाल है।

 

क्या किसी ने ऐसी मांग की थी, क्या यह केवल वाम पंथियों का समर्थन हासिल करने और उन्हें राजनीतिक रूप से कमजोर करने की चाल थी? क्योंकि उस वक्त भी हिंदू राष्ट्र की बात करने वाली तत्कालीन जनसंघ ( अब भाजपा) की राजनीतिक शक्ति बहुत कम थी। 1971 की प्रचंड इंदिरा लहर में जनसंघ के मात्र 22 सांसद चुनकर आए थे और आरएसएस प्रेरित जनसंघ का वोट प्रतिशत भी मात्र 7.3 था। जो इसके पूर्ववर्ती 1967 के लोस चुनावों की तुलना में और घट गया था। आपातकाल में और भी कई ज्यादतियां हुईं।

इसका नतीजा 1977 के आम चुनाव में इंदिराजी  को भुगतना पड़ा। वे खुद हारीं और कांग्रेस भी सत्ता से बाहर हो गई। 1980 के चुनाव के पहले इंदिराजी को अपनी गलती का अहसास हुआ। लेकिन तब तक देश की राजनीति का रंग बदलने लगा था। इंदिराजी दोबारा पूरी ताकत से सत्ता में लौटीं और आपातकाल की कहानियां धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगीं। यहां तक कि 1999 में जब देश में अटलजी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी, तब भी आपातकाल की 25 वीं बरसी को वैसी तवज्जो नहीं मिली, जिस तरीके से मोदी सरकार ने अब 50 वीं बरसी पर इसे हवा दी है।

 
नए लोस स्पीकर ने कुर्सी संभालते ही आपातकाल के दौरान राजनीतिक प्रताड़ना के कारण जान गंवाने वालों को सदन में श्रद्धांजलि दी। जिसका कांग्रेस को छो़ड़कर सभी ने समर्थन किया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने अभिभाषण में आपातकाल के काले दिनो का जिक्र किया। मप्र सरकार ने आपातकाल को स्कूली पाठ्य क्रम में शामिल करने का ऐलान किया। मध्यप्रदेश में मीसाबंदियों को लोकतंत्र सेनानी मानकर उन्हें  30 हजार रू. प्रतिमाह की पेंशन भी दी जाती है। मीसाबंदियो को लोकतंत्र सेनानियों की संज्ञा दी गई। क्योंकि उन्होंने स्वदेशी सत्ता और निरंकुशता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

निश्चय ही कांग्रेस उन ‘काले दिनो’ को याद नहीं करना चाहती, जबकि भाजपा की चाल यही है कि संविधान बचाने की बात करने वाली कांग्रेस को आपातकाल का आईना बार बार दिखाकर वो मूल संविधान याद दिलाया जाए जो 1976 के संशोधन के पहले का है। यानी भाजपा अतीत का रियर ग्लास दिखाकर सत्ता की गाड़ी आगे हांकना चाहती है तो कांग्रेस नीयत के दर्पण में भाजपा को आईना दिखाकर राजनीतिक बाधा दौड़ जीतना चाहती है तो कांग्रेस का प्रयास उस भय को मेग्नीफाई करने का है कि जिस दिन भाजपा के पास निरंकुश सत्ता होगी, वह संविधान को ‘मनुस्मृति’ में तब्दील करने में देर नहीं करेगी। इसलिए यह बार बार कहा जा रहा है कि देश में दस साल से अघोषित आपातकाल है, जो घोषित आपातकाल से भी बदतर है। जबकि सत्य इन दोनो के बीच कहीं है।   

इमरजेंसी पर रक्षात्मक दिखने वाली कांग्रेस ‘संविधान बचाने’ की रणनीति पर अभी और आगे बढ़ सकती है। क्योंकि इसी साल तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।

‘संविधान बचाओ’ का नारा इनमे कितना चलेगा, यह देखने  की बात है। अमूमन चुनावी ‘काठ की हांडी’ की तरह एक बार ही चढ़ते हैं। जो मुद्दा एक चुनाव में चल गया, वो दूसरे में भी चले, यह जरूरी नहीं है। फिर इतिहास के गड़े मुर्दे हर बार सियासी दलों के अनुकूल बोली ही बोलें, यह भी कम ही होता है।

जनता का रोष एक बार निकलने के बाद उसी मुद्दे पर उसमें  दोबारा जोश भरना आसान नहीं है। फिर भी चुनावी हानि लाभ से हटकर अच्छी बात यह है कि कुछ बुनियादी मसलों और प्रतिबद्धताओं पर तीखी बहस हो रही है, इस पर कौन कितना खरा उतरता है, यह जल्द ही पता चल जाएगा।

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