मत: खतरनाक है विज्ञान और धर्म में घालमेल की कोशिश, सचेत करता है रूस और जर्मनी का इतिहास

वर्ष 2009 में दो प्रसिद्ध शिक्षाविदों एवं शीर्ष वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्रों के निदेशकों ने मुझे बताया था कि उन्हें विदेश में रहने वाले भारतीय शोधकर्ताओं से नौकरियों के लिए सबसे अच्छे आवेदन मिल रहे थे। यह दिलचस्प था, वे भारतीय वैज्ञानिकों के विदेश में नौकरी करने वाले स्वभाव से कहीं अधिक परिचित थे। दरअसल, वैज्ञानिकों की प्रतिभा एक बड़ी संख्या में पश्चिम देशों से वापस भारत की ओर लौट रही थी। प्रतिभा पलायन के इस आंशिक उलटफेर के कई कारण थे। वैश्विक वित्तीय संकट के कारण पश्चिमी विश्वविद्यालय धन की कमी का सामना कर रहे थे, वहीं भारत अनुसंधान और छात्रवृत्ति पर अधिक खर्च कर रहा था। केंद्र सरकार ने उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान केंद्रों की एक शृंखला स्थापित की, जिन्हें भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा कई नए आईआईटी भी खुले। इन सभी ने अपने संकाय में शामिल होने के लिए प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आकर्षित किया।

1940-50 के दशकों में विदेशों से पीएचडी किए कुछ विद्वान भारत लौट आए थे, जिनमें ई.के.जानकी अम्मल, होमी भाभा, एम.एस. स्वामीनाथन, सतीश धवन और ओबैद सिद्दीकी जैसे विश्व स्तरीय वैज्ञानिक शामिल थे। उनके भारत लौटने की पहली वजह थी, अपनी मातृभूमि से प्रेम। ये सभी उस समय बड़े हुए थे, जब यहां राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था। जब भारत स्वतंत्र हो गया तो वे इसके भविष्य को आकार देने में मदद करने के लिए अपनी मातृभूमि में लौटना चाहते थे। हालांकि बाद के दशकों में जिन लोगों ने विदेश में पीएचडी की, काम करने के लिए उनके वहीं रहने की संभावना अधिक थी। वजह यह कि अधिकांश वैज्ञानिक अनुसंधान करने की स्वतंत्रता और अच्छा जीवन जीने के लिए बेहतर सामाजिक वातावरण चाहते हैं, जिसमें वे परिवार का पालन-पोषण कर सकें। अगर अपने देश में भी इसी तरह के मानदंड हों तो वे यहां भी काम करना चाहेंगे।

2009 में जब बेंगलुरु में मैंने बात की थी, भारतीय वैज्ञानिक पारिस्थितिकी तंत्र हाल के दिनों की तुलना में अधिक आशाजनक लग रहा था। अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी, जिससे शैक्षणिक वेतन में वृद्धि हुई। समाज भी पिछले दशकों की तुलना में अधिक सहिष्णु और अधिक मिलनसार दिखाई दिया। ऐसा लगता है कि 1990 और 2000 के दशकों की शुरुआत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण समाप्त हो गया था। स्वतंत्र अनुसंधान करने की इच्छा रखने वाले युवा वैज्ञानिक के लिए 1999, 1989 या 1979 की तुलना में 2009 भारत में नौकरी की तलाश करने के लिए कहीं बेहतर समय था। पंद्रह सालों के बाद क्या विदेश से पीएचडी करके भारत लौटने के इच्छुक युवा वैज्ञानिकों के लिए स्थिति अब भी उतनी ही आकर्षक होगी? मुझे इस पर भारी संदेह है। इसका मुख्य कारण यह है कि मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार, डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार की तुलना में वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति कहीं अधिक प्रतिकूल है। प्रधानमंत्री मोदी हार्वर्ड में पढ़ने वालों की तुलना में कड़ी मेहनत को प्राथमिकता देते हैं।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सोच बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने आईआईटी की स्थापना की और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च का पुरजोर समर्थन किया था। डॉ. मनमोहन सिंह ने भी आईआईएसईआर की स्थापना में मदद की। नेहरू से लेकर डॉ. सिंह के बीच के सभी प्रधानमंत्रियों ने इसी तरह बुनियादी अनुसंधान को बढ़ावा दिया। लेकिन 2014 के बाद से ये सब बदल गया है। एक तो वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान को बढ़ावा देने में नरेंद्र मोदी की रुचि बहुत कम है, दूसरे उन्होंने हिंदुत्व विचारकों को आईआईटी के कामकाज में हस्तक्षेप करने की अनुमति दे रखी है। पहले इन संस्थानों के निदेशकों को उनके अकादमिक साथियों द्वारा चुना जाता था, लेकिन अब इन संस्थानों के निदेशकों के नामों की दक्षिणपंथी विशेषज्ञों द्वारा जांच की जाती है और उनकी विचारधारा का पालन करने वालों को ही चुना जाता है।

कुछ समय पहले विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के सचिव द्वारा जारी किए गए नौ ट्वीट्स की एक शृंखला में भारतीय विज्ञान में हिंदुत्व की वैचारिक पैठ को स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया। इन्होंनेे बेंगलुरु के भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान की एक ऐसी प्रणाली तैयार करने के लिए प्रशंसा की, जिससे राम नवमी पर अयोध्या के नए मंदिर में भगवान की मूर्ति पर सूरज की रोशनी पड़ सके। उनके ट्वीट को लेकर सोशल मीडिया पर तीखी टिप्पणियां हुईं। कुछ आलोचक तो यहां तक कहने लगे कि सचिव महोदय जिस बात की भारतीय विज्ञान में महान योगदान के रूप में प्रशंसा कर रहे थे, वह कार्य हाईस्कूल के किसी तेज छात्र द्वारा भी किया जा सकता था। मैं इस मामले को लेकर अपने उस दोस्त के पास गया, जिसने अमेरिकी विश्वविद्यालय से भौतिकी में पीएचडी की थी। उन्होंने धैर्यपूर्वक मुझे समझाया कि किस तरह से लेंस और दर्पणों को कलात्मक रूप से डिजाइन करके और उन्हें रणनीतिक रूप से सही जगहों पर रखकर सौर और चंद्र चक्रों के बीच विच्छेदन/संयोजन की गणना करके अयोध्या में मूर्ति पर सूर्य के प्रकाश को चमकाया गया था। इस तरह से विज्ञान को थोड़ा परिष्कृत किया गया था, लेकिन यह अभूतपूर्व तो किसी भी तरह से नहीं था। यह संभव है कि डीएसटी सचिव कट्टर हिंदू हों, फिर भी वह यह तो निश्चित रूप से जानते हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा राम मंदिर का उद्घाटन आम चुनाव से कुछ दिन पहले आध्यात्मिक कारणों से नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से किया गया था। उन्होंने स्वयं को इसके सर्जक और प्रेरणास्रोत के रूप में प्रस्तुत किया। इसके बावजूद डीएसटी सचिव ने इस बात को उजागर करना उचित समझा कि किसी प्रतिष्ठित संस्थान द्वारा अब तक किया गया सबसे कमजोर वैज्ञानिक कार्य क्या हो सकता है। यह मामला पीएम की पसंदीदा राजनीतिक परियोजना से संबंधित है और चुनाव शुरू होने से कुछ ही दिन पहले हुआ, यह संयोग नहीं है।

यह अत्यंत दुखद है कि प्रेस पर मोदी सरकार के हमले, सिविल सेवाओं और राजनयिक कोर का राजनीतिकरण, सशस्त्र बलों को धर्मनिरपेक्ष न रहने देने की कोशिश और स्वतंत्र नियामक संस्थानों को अपने अधीन करने का प्रयास किया गया है। इस बात की किसी को चिंता नहीं कि यह भारत में विज्ञान के अध्ययन को कमजोर कर रहा है। नाजियों के नस्ल सिद्धांत ने जर्मन विज्ञान को नष्ट कर दिया था। मार्क्सवाद की राजनीतिक हठधर्मिता ने रूसी विज्ञान को दशकों पीछे धकेल दिया। अब हमारे देश में सर्वोत्तम संस्थानों के शोधकर्ताओं के काम को हिंदुत्व और नरेंद्र मोदी की महिमा के अनुरूप ढालने की कोशिश हो रही है। इसका भारत में वैज्ञानिकों के मनोबल पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

जब विज्ञान पूरी तरह धर्म और राजनीति के हितों के अधीन है तो यहां काम करने वाले कौन से प्रतिभाशाली शोधकर्ता विदेशों से आने वाले आकर्षक प्रस्तावों का विरोध करेंगे और इस स्थिति में विदेशों में प्रशिक्षित किन वैज्ञानिकों के अपने देश में काम पर लौटने की संभावना है?

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