NEPOTISM POLITICS: राजनीति में जब परिवारवाद बना 'पाप', सियासी लोभ के चक्कर में आई रिश्तों में खटास की अनसुनी कहानी

पटना: वर्ष 2014 से केंद्र की सत्ता में काबिज भाजपा ने भ्रष्टचार और राजनीति में परिवारवाद को बड़ा मुद्दा बना लिया है। इस बार लोकसभा चुनाव की डुडुगी बजते ही भाजपा ने इन्हीं दो मुद्दों को आधार बना कर परिवारवादी पार्टियों के नेताओं को घेरने की रणनीति पर काम करना शुरू किया। बाद में जरूर कुछ और मुद्दे जुड़े, लेकिन भाजपा का पूरा फोकस इन्हीं मुद्दों पर रहा। पीएम नरेंद्र मोदी इसे शिद्दत से उछालते हैं। अपनी हर चुनावी सभाओं में वे राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने वाले नेताओं पर हमले करते हैं। परिवारवाद की राजनीति बाद में परिवार में कैसे विभाजन का कारण बन जाती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। हिन्दी पट्टी में उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। मुलायम को किनारे करने में उनके बेटे अखिलेश यादव ने ही बड़ी भूमिका निभाई।

वंशवाद का जनक है नेहरू परिवार

राजनीति में वंशवाद की बुनियाद सबसे पहले कांग्रेस नेता और देश के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू ने डाली थी। उसके बाद तो वंशवाद ने बरगद का रूप धारण कर लिया। कांग्रेस में पंडित नेहरू से शुरू हुई वंशवाद की परंपरा इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी से होते हुए अब राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और उनके पति राबर्ट वाड्रा तक पहुंच चुकी है। संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी और बेटे वरुण गांधी भी परिवारवाद की राजनीति के ही दायरे में आते हैं। हालांकि इंदिरा के बेटे संजय के निधन के बाद मेनका को गांधी परिवार ने दरकिनार कर दिया था। बाद में कांग्रेस को देख कर यह बीमारी समाजवाद का राग अलापने वाले लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के परिवार तक पहुंच गई। दोनों के घरों में विरले ही कोई बचा होगा, जिसने राजनीति का स्वाद न चखा है।

लालू-मुलायम ने परंपरा को बढ़ाया

कांग्रेस ने भले ही परिवारवादी राजनीति की शुरुआता की, लेकिन बाद में समाजवादी पार्टियों के कुछ नेता आगे निकल गए। इनमें लालू यादव और मुलायम सिंह यादव की सबसे अधिक चर्चा होती है। खुद को जेपी-लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के सिद्धांतों का वाहक बताने वाले इन दोनों नेताओं ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि जिनके नाम पर उनकी राजनीतिक दुकान चलती है, उन्होंने जीते जी परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में कोई जगह नहीं दी। लालू यादव के परिवार की बात करें तो बीवी, बेटे और बेटियों समेत आधा दर्जन लोग अभी राजनीति में हैं। इसे सपाट ढंग से समझें तो इस बार बिहार में 17 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले मुसलमानों को लालू ने सिर्फ दो लोगों को लोकसभा का उम्मीदवार अपनी पार्टी से बनाया है। दूसरी ओर अकेले अपने परिवार से लालू ने दो बेटियों को चुनाव लड़ने के काबिल समझा। परिवारवाद की राजनीति सामाजिक संतुलन को कैसे बिगाड़ती है, इसका इससे बड़ा कोई उदाहरण नहीं हो सकता। लालू सजायाफ्ता होने के कारण चुनावी राजनीति से भले अलग हैं, लेकिन अब भी वे अपनी पार्टी के रष्ट्रीय अध्यक्ष बने हुए हैं। उनकी पत्नी राबड़ी देवी तो किचन से निकल कर सीधे बिहार की क्वीन बन गई थीं। फिलवक्त वे विधान परिषद की सदस्य हैं। दोनों बेटे तेज प्रताप और तेजस्वी अभी विधायक हैं। वे मंत्री भी रह चुके हैं। एक बेटी मीसा भारती ने राज्यसभा के रास्ते राजनीति में कदम रखा तो इस बार वे पाटलिपुत्र सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रही हैं। लालू को अपनी किडनी देकर जीवन दान देने वाली बेटी रोहिणी आचार्य को भी लालू ने राजनीति में घसीट लिया है। वे इस बार सारण सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रही हैं। समाजवादी नेताओं में परिवारवाद को बढ़ाने वाले दूसरे दिग्गज मुलायम सिंह यादव रहे। बेटे, बहू, भाई समेत करीब आधा दर्जन लोग मुलायम परिवार से राजनीति में दखल रखते हैं। हालांकि परिवारवाद की राजनीति का कुफल लालू को देखने का मौका नहीं मिला है, लेकिन मुलायम सिंह ने तो इसे झेला है। उनके ही बेटे अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी को हाईजैक कर लिया और मुलायम देखते रह गए। पार्टी पर कब्जे को लेकर मामला चुनाव आयोग तक पहुंच गया था।

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देवेगौड़ा और फारूक भी पीछे नहीं

कर्नाटक की राजनीति में पूर्व पीएम एचडी देवेगौड़ा के परिवारवाद का दुष्परिणाम इन दिनों सुर्खियों में हैं। उनके बेटे और पोते पर अपहरण और महिलाओं के सेक्सुअल हैरेसमेंट के जो गंभीर आरोप लगे हैं, उसकी मूल वजह परिवारवाद की ही राजनीति है। इसका दुष्परिणाम एचडी देवेगौड़ा खुद भोग रहे हैं। उनके घर में छिपे बेटे को एसआईटी उठा ले गई तो पोते की गिरफ्तारी के लिए लुकआउट नोटिस तक जारी करने पड़े हैं। एचडी देवेगौड़ा की गलती यही थी कि उन्होंने पहले अपने बेटे को राजनीति में उतारा और बाद में पोता भी राजनीति का किरदार बन गया। हकीकत यह है कि राजनीति में देवेगौड़ा परिवार की तीन पीढ़ियों में उनके पोते आठवें सदस्य हैं। देवेगौड़ा ने पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के सदस्यों को राजनीति में जगह दी। देवेगौड़ा के बड़े बेटे एचडी रेवन्ना कर्नाटक के मंत्री रह चुके हैं। रेवन्ना के बेटे सूरज रेवन्ना भी राजनीति में हैं।

साउथ की हर पार्टी में परिवारवाद

सच कहें तो राजनीति में परिवारवाद की छूत सिर्फ हिन्दी प्रदेशों तक ही सीमित नहीं है। यह रोग दक्षिण भारतीय तकरीबन हर दल को लग चुका है। तमिलनाडु में एमके स्टालिन ने अपने बेटे उदय निधि को मंत्री बना दिया है। उदय निधि करुणानिधि परिवार में तीसरी पीढ़ी के नेता हैं, जिनका राजनीति में प्रवेश 2019 में हुआ। कर्नाटक की दूसरी पार्टियों में भी वंशवाद या परिवारवाद की राजनीति ने जड़ें जमा ली हैं। टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक वर्चस्व की कहानी तो परिवारवादी नेताओं के लिए सबक ही है। यूपी में अखिलेश यादव ने जिस तरह अपने पिता मुलायम सिंह यादव को धकिया कर समाजवादी पार्टी हथिया ली थी, ठीक वही पैटर्न पर आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव के साथ भी सलूक हुआ। रामाराव ने 1983 में टीडीपी की सथापना की थी। कुछ ही महीने बाद वे सीएम बन गए। चंद्रबाबू नायडू उनके दामाद हैं। इसलिए टीडीपी में उनका भी दबदबा था। साल 1995 में चंद्रबाबू नायडू ने अपनी पार्टी के विधायकों को पाले में कर लिया। रामाराव को भनक तक नहीं लगी। नायडू ने अपने ससुर रामाराव को ही किनारे कर दिया। फिर नायडू ने सरकार से लेकर संगठन तक पर कब्जा जमा लिया।

अब्दुल्ला और मुफ्ती का वंशवाद

आमतौर पर जम्मू कश्मीर की राजनीति में लोगों की रुचि कम होती है। पर, वहां भी राजनीतिक दलों में वंशवाद की झलक साफ दिखती है। नेशनल कान्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने अपने बेटे उमर अब्दुल्ला को राजनीति में उतार दिया। सच कहें तो फारूक के सियासी वारिस उमर अब्दुल्ला ही हैं। यानी बाप के साथ बेटा भी राजनीति में हैं। दोनों जम्मू कश्मीर के सीएम रह चुके हैं। पीडीपी के नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती को राजनीति में उतारा। महबूबा भी सीएम रह चुकी हैं। आज जम्मू कश्मीर में कई पार्टियां हैं, लेकिन अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार की धमक अब भी बरकरार है।

परिवारवाद की विरोधी है भाजपा

भाजपा में वैसे भी परिवारवाद कम ही दिखता है। अब तो भाजपा ने एक परिवार, एक टिकट का नियम ही लागू कर दिया है। राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद खत्म करने की यह भाजपा की कोशिश है। पिछले साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को इसका खामियाजा भी भोगना पड़ा। कई नेता अपने अलावा परिवारीजनों के लिए भी टिकट चाहते थे। भाजपा ने नहीं दिया तो उन्होंने अपनी रह बदल ली। भाजपा को वहां सत्ता गंवानी पड़ी थी। वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव हुआ। उसी समय से एक परिवार, एक टिकट का सिद्धांत भाजपा ने लागू किया था। हालांकि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह अपवाद रहे। इसलिए कि उन्होंने 2017 का विधानसभा चुनाव भी जीता था।

सोनिया गांधी के घर में भी झगड़ा

अब तो सोनिया गांधी के परिवार में परिवारवादी राजनीति के खतरे की घंटी की गूंज सुनाई देने लगी है। कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी और उनके पति राबर्ट वाड्रा लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे। राहुल गांधी ने टांग अड़ा दी। राबर्ट वाड्रा अमेठी सीट चाहते थे। राहुल ने नहीं दी। यह भी कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी रायबरेली से लड़ने की इच्छुक थीं। वहां से राहुल गांधी खुद उम्मीदवार हो गए। सियासी हलके में यह चर्चा आम है कि राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका के कैंप को ध्वस्त करना चाहते हैं। ऐसी चर्चाओं में सच्चाई इसलिए भी नजर आ रही है कि प्रियंका गांधी के कहने पर ही बिहार में पप्पू यादव ने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में किया था। प्रियंका ने उन्हें पूर्णिया से उम्मीदवार बनाने का आश्वासन भी दिया था। यह बात खुद पप्पू यादव कह चुके हैं। पर, लालू के प्रभाव में आकर राहुल ने पप्पू का पत्ता काट दिया।

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2024-05-05T17:30:53Z dg43tfdfdgfd